एक नज़्म
प्रेम है आधार जीवन का जहां में।
जिसने पाया खूब पाया इस जहां में।
और निस्बत है जिसे तन्हाइयों से
फिर कहां वो चैन पाया इस जहां!
प्रेम है जीवन की जर्जर नाव लेकिन
एक तिनके का सहारा साथ हो तो।
फिर कहां कुछ खोजता है कौन जग में?
प्रेम से सर्वस्व मिलता है जहां में?
एक ही वादे में पूरी ज़िंदगी है।
एक ही झटके में कोई तोड़ डाले।
टूटकर भी क्या कभी कुछ भी मिला है ?
छोड़कर आहें भयानक इस जहां में?
आज तो कह दो कि धरती गीत गाए।
आज है बागों में कोई पर्व जैसे।
एक मैं ही ओढ़ पाया ओस चादर,
और किसको रास आया इस जहां में?
देखिए मुद्दत हुई है आज तक तो
मैं भटक कर रेत को बस छान पाया।
क्या पता किस कण में स्वर्णिम ज्वाल पाऊं,
छाव में कस्तूरी मिलता कब जहां में?
यूं अगर हर बंध में हो प्रश्न तो फिर
कौन गाएगा मेरे गीतों को बोलो।
हां भले ही ना पढ़े मुझको जमाना
किंतु मैं बस सत्य लिखता हूं जहां में!!
दीपक झा "रुद्रा"
Swati chourasia
05-Mar-2022 07:59 PM
बहुत ही सुंदर रचना 👌
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Dr. Arpita Agrawal
05-Mar-2022 04:56 PM
बेहतरीन सृजन
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